Natasha

लाइब्रेरी में जोड़ें

राजा की रानी

हम दोनों ने मिलकर खूब घूम-फिर के गाँव देख-भाल लिया। गाँव छोटा है, और जिन्हें हम छोटी जात कहते हैं, उन्हीं का है। वास्तव में, दो घर तम्बोली और एक घर लुहार के सिवा गंगामाटी में ऐसा कोई घर नहीं जिसका पानी लिया जो सके। सभी घर डोम और बाउरियां के हैं। बाउरी लोग बेंत का काम और मजूरी करते हैं और डोम लोग टोकनी, सूप, डलिया वगैरह और पोड़ामाटी गाँव में बेचकर जीविका चलाते हैं। गाँव के उत्तर की तरफ पानी के निकास का जो बड़ा नाला है, उसी के उस पार पोड़ामाटी है। सुनने में आया कि वह गाँव बड़ा है, और उसमें ब्राह्मण, कायस्थ और अन्यान्य जातियों के भी बहुत-से घर हैं। अपने कुशारी महाशय का घर भी उसी पोड़ामाटी में है। मगर दूसरों की बात पीछे कहूँगा, फिलहाल अपने गाँव की जो हालत ऑंखों से देखी, उससे मेरी दृष्टि ऑंसुओं से धुँधली हो आई। बेचारों ने अपने-अपने घरों की जी-जान से छोटा बनाने की कोशिश करने में कुछ उठा नहीं रखा है, फिर भी इतने छोटे-छोटे घरों के छाने लायक सूखा घास भी इस सोने के देश में, उनके भाग्य से नहीं जुटता। बीता-भर जमीन तक किसी के पास नहीं, सिर्फ डलिया-टोकनी-सूप बनाकर और दूसरे गाँव में सद्गृहस्थों को पानी के मोल बेचकर किस तरह इन लोगों की गुजर होती है, मैं तो सोच ही न सका। फिर भी, इसी तरह इन अशुचि अस्पृश्यों के दिन कट रहे हैं और शायद इसी तरह हमेशा से कटे हैं, परन्तु किसी ने भी किसी दिन इसका जरा खयाल तक नहीं किया। सड़क के कुत्ते जैसे पैदा होकर कुछ वर्ष तक जैसे-तैसे जिन्दा रहकर न जाने कहाँ, कब कैसे मर जाते हैं-उनका जैसे कहीं कोई हिसाब नहीं रखता, इन अभागों का भी वही हाल है, मानो, देशवासियों से वे इससे ज्यादा और कुछ दावा ही नहीं कर सकते। इनका दु:ख इनकी दीनता, इनकी सब तरह की हीनता अपनी और पराई दृष्टि में इतनी सहज और स्वाभाविक हो गयी है कि मनुष्य के पास ही मनुष्य के इतने बड़े जबरदस्त अपमान से कहीं किसी के भी मन में लज्जा का रंच-मात्र भी संचार नहीं होता। मगर, साधुजी इधर जो मेरे चेहरे की तरफ देख रहे थे, सो मुझे मालूम ही नहीं हुआ। वे सहसा बोल उठे, “भाई साहब, यही है देश की सच्ची तसवीर। लेकिन, मन में मलाल लाने की जरूरत नहीं। आप सोच रहे होंगे कि ये बातें इन्हें दिन-रात सताया करती हैं, मगर यह बात कतई नहीं।”

मैंने क्षुब्ध और अत्यन्त विस्मित होकर कहा, “यह बात क्या कही साधुजी?”

साधुजी ने कहा, “मेरी तरह आप भी अगर सब जगह घूमा-फिरा करते भाई साहब, तो समझ जाते कि मैंने लगभग सच बात ही कही है। असल में दु:ख भोगता कौन है भइया? मन ही तो? मगर वह बला क्या हम लोगों ने बाकी छोड़ी है इनमें?- बहुत दिनों से लगातार सिकंजे में दबा-दबाकर बिल्कु'ल निचोड़ लिया है बेचारों का मन। इससे ज्यादा चाहने का अब ये खुद ही अनुचित स्पर्धा समझते हैं। वाह रे वाह! हमारे बाप-दादों ने भी सोच-विचार कर कैसी उमदा मशीन ईजाद की है, क्या कहने!” यह कहकर साधु अत्यन्त निष्ठुर की भाँति 'हा: हा:' करके हँसने लगे। मगर मैं न तो उनकी हँसी में ही शरीक हो सका, और न उनकी बात का ठीक-ठीक अर्थ ही ग्रहण कर सका, और इसलिए मन-ही-मन लज्जित हो उठा।

इस साल फसल अच्छी नहीं हुई, और पानी की कमी से हेमन्त ऋतु के धान लगभग आधे सूख जाने से अभी से अभाव की हवा चलने लगी। साधुजी ने कहा, “भाई साहब, चाहे किसी बहाने ही सही, भगवान ने जब आपको अपनी प्रजा के बीच ढकेल-ढुकूलकर भेज ही दिया है, तब अचानक भाग न जाइएगा। कम-से-कम यह साल तो यहीं बिताकर जाइए। यह तो मैं नहीं सोचता कि आप विशेष कुछ कर सकेंगे, पर ऑंखों से देखकर प्रजा के दु:ख को बँटाना अच्छा है, इससे जमींदारी करने के पाप का बोझ कुछ हलका होता है।”

मैंने मन-ही-मन गहरी साँस लेकर सोचा-जमींदारी और प्रजा जैसे मेरी ही हो, परन्तु जैसे पहले जवाब नहीं दिया, अबकी बार भी मैं उसी तरह चुप रह गया।

छोटे से गाँव की प्रदक्षिणा करता हुआ नहा-धोकर जब वापस आया, तब बारह बज चुके थे। शाम की तरह आज भी हम दोनों को भोजन परोसकर राजलक्ष्मी एक तरफ बैठ गयी। सारी रसोई उसने खुद अपने हाथ से बनाई थी, लिहाजा मछली का मुँहड़ा और दही की मलाई साधु की पत्तल में ही पड़ी। साधुजी बैरागी आदमी ठहरे, किन्तु, सात्वि‍क, और असात्वि‍क, निरामिष और आमिष, किसी भी चीज में उनका रंचमात्र भी विराग देखने में नहीं आया, बल्कि इस विषय में उन्होंने ऐसे प्रबल अनुराग का परिचय दिया जो घोर सांसारिक में भी दुर्लभ है। चूँकि रसोई के भले-बुरे मर्म को समझने में मेरी ख्याति नहीं थी, इसलिए मुझे समझाने की तरह रसोईदारिन ने कोई आग्रह भी प्रकट नहीं किया।

साधुजी को कोई जल्दी नहीं; वे बहुत ही धीरे-सुस्ते भोजन करने लगे। कौर चाबते हुए बोले, “जीजी, जगह सचमुच ही अच्छी है, छोड़कर जाने में ममता होती है।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “छोड़ जाने के लिए तो हम लोग तुमसे आरजू-बिनती नहीं कर रहे हैं, भइया!”

साधुजी ने हँसकर कहा, “साधु-सन्यासी को कभी इतना प्रश्रय न देना चाहिए जीजी- ठगाई जाओगी। खैर, कुछ भी हो, गाँव अच्छा है, कहीं भी कोई ऐसा नहीं दिखाई दिया जिसके हाथ का पानी पिया जा सके। और ऐसा भी एक घर नहीं देखा जिसके छप्पर पर एक पूला सूखा घास भी दिखाई दिया हो- जैसे मुनियों के आश्रम हों।”

आश्रम के साथ अस्पृश्य घरों का एक दृष्टि से जो उत्कृष्ट सादृश्य था, उसका खयाल करके राजलक्ष्मी ने जरा क्षीण हँसी हँसकर मुझसे कहा, “सुनते हैं कि सचमुच ही इस गाँव में सिर्फ छोटी जात ही बसती है-किसी के एक लोटे पानी का भी आसरा नहीं। देखती हूँ, यहाँ ज्यादा दिन रहना नहीं हो सकेगा।”

साधु जरा हँसे, परन्तु मैं नीरव ही रहा। कारण राजलक्ष्मी जैसी करुणामयी भी किस संस्कार के वश इतनी बड़ी लज्जा की बात उच्चारण कर सकी, सो मैं जानता था। साधु की हँसी ने मुझे स्पर्श तो किया, किन्तु वह विद्ध न कर सकी। इसी से, मैं मुँह से तो कुछ नहीं बोला, मगर फिर भी मेरा मन राजलक्ष्मी को ही लक्ष्य करके भीतर कहने लगा, “राजलक्ष्मी, मनुष्य का कर्म ही केवल अस्पृश्य और अशुचि होता है, मनुष्य नहीं होता। नहीं तो 'प्यारी' किसी भी तरह आज फिर 'लक्ष्मी' के आसन पर वापस न आ सकती। और वह भी सिर्फ इसीलिए सम्भव हुआ है कि मनुष्य की देह को ही मनुष्य समझने की गलती मैंने कभी नहीं की। इस बात में बचपन से ही बहुत बार मेरी परीक्षा हो चुकी है। लेकिन, ये बस बातें मुँह खोलकर किसी से कही भी नहीं जा सकतीं और कहने की प्रवृत्ति नहीं होती।”

दोनों भोजन समाप्त करके उठे। राजलक्ष्मी हम लोगों को पान देकर, शायद, खुद भी कुछ खाने चली गयी। परन्तु करीब घण्टे-भर बाद लौटकर जैसे वह खुद साधुजी को देखकर आसमान से गिरी-सी मालूम हुई, वैसे ही मैं भी विस्मित हो गया। देखा कि इसी बीच में न जाने कब वे बाहर से एक आदमी ले लाए हैं और दवाओं का भारी बॉक्स उसके सिर पर लादकर प्रस्थान के लिए तैयार खड़े हैं।

कल यही बात तो हुई थी, मगर आज हम उस हम बात को बिल्कुदल ही भूल गये थे। इस बात की कल्पना भी नहीं की थी कि इस प्रवास में राजलक्ष्मी के इतने आदर-जतन की उपेक्षा करके साधुजी अनिश्चित अन्यत्र के लिए इतनी जल्दी तैयार हो जाँयगे। स्नेह की जंजीर इतनी जल्दी नहीं टूटने की-राजलक्ष्मी के निभृत मन में शायद यही आशा थी। वह मारे डर के व्याकुल होकर कह उठी, “तुम क्या जा रहे हो आनन्द?”

साधु ने कहा, “हाँ जीजी, जाता हूँ। अभी से रवाना न होने से पहुँचने में बहुत रात हो जायेगी।”

“वहाँ कहाँ ठहरोगे, कहाँ सोओगे? अपना आदमी तो वहाँ कोई होगा नहीं।”

“पहले पहुँचूँ तो सही।”

“लौटोगे कब?”

“सो तो अभी नहीं कहा जा सकता। काम की भीड़ में अगर आगे न बढ़कर गया, तो किसी दिन लौट भी सकता हूँ।”

राजलक्ष्मी का मुँह पहले तो फक पड़ गया, फिर उसने जोर से अपना सिर झटककर रुँधे हुए कण्ठ से कहा, “किसी दिन लौट भी सकते हो? नहीं, यह हरगिज नहीं हो सकता।”

क्या नहीं होगा सो समझ में आ गया, इसी से साधु ने प्रत्युत्तर में सिर्फ जरा म्लान हँसी हँसकर कहा, “जाने का कारण तो आपको बता ही चुका हूँ।”

“बता चुके हो? अच्छा, तो जाओ” इतना कहते-कहते राजलक्ष्मी प्राय: रो दी, और जल्दी से कमरे के भीतर चली गयी। क्षण-भर के लिए साधुजी स्तब्ध हो गये। उसके बाद मेरी तरफ देखकर लज्जित मुख से बोले, “मेरा जाना बहुत जरूरी है।”

मैंने गर्दन हिलाकर सिर्फ इतना
 ही कहा, “मालूम है।” इससे ज्यादा और कुछ कहने को था भी नहीं। कारण, मैंने बहुत कुछ देखकर जान लिया है कि स्नेह की गहराई समय की स्वल्पता से

   0
0 Comments